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!!contest !! कविता —- नज़र तलाशती है वो मुक़ा

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नज़र तलाशती है वो मुक़ा,पार जिनके जाना ना मुमकिन है
हर इश्क की है ऐसी  सजा ,जान खैरियत ना मुमकिन है
हवाए भी अब  ऐसे चलेंगी ,चीर देगी सीना दरख्तों का
अब कहीं भी अपना आशियाँ ,बनाना ना मुमकिन है
हर मंज़र एक तबाही  है, हर जख्म एक  गबाही  है
दुनिया के इन बाजारों से ,इंसान बचाना ना मुमकिन है
जब तक मरता रहेगा इंसा ,अपने अन्दर के शैतानो से
हर एक दिल में फरिस्ता ,तब तक लाना ना मुमकिन है
खुल रहें मदरसे नफरत के ,बन रहें मोलवी हिंसा के
हाथो में छुपे खंजर से ,अब पीठ बचाना ना मुमकिन है
जब आंधी ऐसी चलती है ,और जमी भी यूँही जलती है
जब नहीं बचा कुछ खोने को ,ना साथ है कोई रोने को
तो फिर बंदिश क्यों मानू मै ,क्यों राह तकू मै सूरज की
इस जमी से उस फलक तक, दिन में जाना ना मुमकिन है

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